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Vidhwans
बनारस जिले में बीरा नाम के गाँव में भूरी नाम की एक बूढ़ी, निःसन्तान विधवा रहती थी। उसके पास रहने के लिए घर नहीं था। उसकी आजीविका का एकमात्र स्रोत एक छोटी सी भट्ठी थी। गाँव के लोग उसकी भट्टी के पास अपना अनाज भुनवाने के लिए आते थे और उसके बदले में भूरी को थोड़ा अनाज दे देते थे। भूरी उसी अनाज को भूनकर खा लेती थी। रात होने पर भूरी अपनी भट्टी के पास ही सो जाती थी । और जैसे ही उजाला होता, वह उठ कर भट्टी के लिए सूखी पत्तियाँ इकट्ठा करने के लिए बाहर चली जाती। इस तरह वह अपना जीवन यापन कर रही थी।
उदयभान उस गाँव का एक धनवान जमींदार था। वह बहुत ही चतुर और निर्दयी था। गाँव के बहुत से लोगों ने उदयभान से कर्ज ले रखा था और बदले में उसके खेतों में नौकरी करते थे। इसलिए उदयभान अपने आप को गाँव का मालिक समझता था। उदयभान भी अपने अनाज की बोरियां भूरी की भट्टी पर भुनवाता था। लेकिन उसकी एवज में वह भूरी को कुछ भी नहीं देता था। उसका कहना था कि अपने गाँव में भूरी को काम करने कि इजाजत देकर वह भूरी पर एहसान कर रहा है। उस एहसान के बदले में भूरी को उसका अनाज मुफ्त में हो भूनना होगा। भूरी बेचारी कुछ न कर पाती। उदयभान की अनाज कि बोरी भूनने में उसको पूरा दिन लग जाता और फिर उसे बिना कुछ खाये ही रात गुजारनी पड़ती।
एक बार गाँव में वसंत उत्सव मनाया जा रहा था। उस दिन सभी लोग एक दुसरे को उपहार के रूप में भुना हुआ अनाज देते हैं। उस दिन सुबह से ही भूरी कि भट्टी पर लोगों कि भीड़ लगी हुई थी। भूरी के पास सांस लेने का भी समय नहीं था। हर कोई अपना अनाज जल्दी से जल्दी भुनवाने चाहता था। तभी वहां उदयभान के दो नौकर आये। दोनों के पास अनाज की एक एक बोरी थी। वे भूरी को अनाज को जल्दी से भूनने का आदेश देकर चले गए। बोरिया देख कर भूरी घबरा गयी। इतना अनाज भूनने में तो रात हो जाएगी और उसे बिना कुछ खाये हुए लगातार भट्टी जलानी पड़ेगी। और इतने काम के बदले उसको कुछ भी नहीं मिलेगा। लेकिन वह उदयभान और उसके आदमियों की क्रूरता से परिचित थी। इसलिए उसने अन्य लोगों से छमा मांगी और उदयभान के अनाज को भूनने में जल्दी से लग गयी।
शाम होते ही उदयभान के नौकर लौट आये और पूछा अनाज भुन गया क्या। भूरी ने निर्भीकता से कहा "देखते नहीं मैं अभी भी उस पर काम कर रही हूँ। यह रात तक पूरा हो पायेगा। ऐसा सुन कर नौकरों को गुस्सा आ गया। वो बोले "पूरा दिन बीत गया और तुम अभी तक नहीं कर पेयी। तुम अनाज भून रही हो या खा रही हो। हम अभी उदयभान से जाकर तुम्हारी शिकायत करते हैं।
उदयभान को जब ये पता चला तो वो आग बबूला हो गया। उसने अपने आदमी भेज कर उसी रात भट्टी को तुड़वा दिया।
भूरी के पास अब आजीविका का कोई साधन न बचा। गाँव वालो को भी अब अपने अनाज को भुनवाने के लिए दुसरे गाँव जाना पड़ता था। कुछ लोग उदयभान के पास जाकर भट्टी को फिर से बनवाने के लिए आग्रह करने लगे। लेकिन उदयभान ने उनकी एक न सुनी। वह चाहता था कि गाँव वालों को एक शिक्षा मिले जिससे कोई भी भविष्य में उसके काम को हलके में न लें।
भूरी कि भलाई चाहने वाले लोगों ने उसे दुसरे गाँव जाकर काम करने कि सलाह दी। लेकिन भूरी का हृदय इस सुझाव को स्वीकार नहीं कर पाया। उसने अपना सारा जीवन इस गाँव में बिताया था। यहीं सारे सुख दुःख देखे थे। जीवन के इस आखरी पड़ाव में वह कहीं और नहीं जाना चाहती थी।
एक महीना बीत गया। एक दिन सुबह उदयभान अपने नौकरों के साथ लोगों से किराया वसूल करने के लिए निकला। उन्होंने देखा कि भूरी ने अपनी भट्टी फिर से बनाने में व्यस्त थी। संभवतः उसने रात को यह निर्माण शुरू किया था और सूरज निकलने से पहले इसे ख़त्म करना चाहती थी। भूरी जानती थी कि वह उदयभान की इच्छा के विरुद्ध जा रही है पर वो आशा लगाए बैठी थी की शायद उदयभान अब तक अपना गुस्सा भूल चूका होगा।
लेकिन अफ़सोस, उदयभान अभी भी अपनी जिद से टस से मस नहीं हुआ था। भट्टी देख कर वो आग बबूला हो गया और चिल्लाया "किसकी आज्ञा से तुमने यह फिर से बनाया । मैं अभी इसमें आग लगवाता हूँ। उसने अपने आदमियों को बोलकर भट्टी पर तेल और पत्ते डाल कर आग लगाने का आदेश दे दिआ।
नौकरों ने सूखे पत्ते इकठे किये। भट्टी के ऊपर रख कर उस पर मट्टी का तेल डाला और आग लगा दी। एक ही छण में भट्टी ज्वाला की लपटों से घिर गयी। लेकिन यह क्या जलते हुए पत्ते हवा से पास की झोपडीओ की और जाने लगे और देखते ही देखते आग सभी दिशाओं में तेजी से फैल गई। जमींदार उदयभान की हवेली और खेत पास में ही थे जिसमे पकी फसल खड़ी थी। उदयभान के नौकरो ने आग भुझाने की कोशिश की। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। आग की लपटें बढ़ती गयीं और थोड़ी ही देर में फसल और हवेली सब कुछ निगल गयी।
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